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लोग कहते हैं कि सिनेमा समाज का दर्पण है, ये कई बार लगता हैं की सही भी हैं। लेकिन सिनेमा का हर एक पहलू हर किसी के लिए नहीं हैं। हम इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं, ये समझ में आ जायें तो सब सही हैं।
कई बार होता है की लाइफ में कुछ Situation हम पहली बार फेस कर रहे होते हैं, तो उनसे कैसे निकलना हैं, ये ऑप्शन हमें फिल्मो से ही ले लेते हैं….जैसे दिल टुटने पे देवदास बन जाओ ये तो सामान्य है,आपको फिल्मों से इस तरह के कई और समाधान मिल जायेंगे, इस लिये ही जो फिल्में बना रहे हैं उनकी ये जिम्मेदारी बनती है की वो सही तरीके से हर Situation से निकलना बतायें। है ये सही हैं की अगर, ये ऑप्शन नहीं होते तो दिमाग़ कुछ और बेहतर सोचता। सिनेमा ने हमारे ऑप्शन एक तरह से बंद ही कर दिये हैं। सिनेमा ने हमारे ऑप्शन एक तरह से बंद ही कर दिये हैं, क्योंकि हमें सिनेमा की आदत सी पड़ गई हैं।
मैं ये नहीं कह रहा की सिनेमा गलत है, बल्कि सिनेमा देख कर हमें उसकी अच्छी बातों पर अमल करना चाहिये….लेकिन क्या हो गया हैं की आज-कल लोग सिनेमा को ही सच मान कर, हर Situation में सिनेमा की तरह ही React करने लगे हैं, ये गलत हैं, आज ऐसा लगता है कि सिनेमा ही समाज बन गया है। यही तो होने से रोकना हैं, लोगो को अपना सच जीना है, मानना है दुसरो का नहीं। उनको असल और सिनेमा की लाइफ में जो एक बहुत बड़ा अंतर है, उसे समझना पड़ेगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि दर्पण को दर्पण ही रहने दो।